
झारखंड भाजपा में होने जा रहा है बड़ा खेल ?
दिल मिले ना मिले हाथ मिलाते रहिए रहिए यह कहावत झारखंड में बिल्कुल सटीक बैठता हुआ दिखाई देता है.
तीन महीने के बाद झारखण्ड में विधान सभा का चुनाव होना तय है. इससे पहले झारखण्ड भाजपा अपनी रणनीति के तहत बड़े बदलाव कर सकती ही. विधानसभा चुनाव प्रभारी शिवराज सिंह चौहान एवं सह प्रभारी हेमंत विश्व शर्मा जिस तरह से झारखण्ड में अड्डा जमाये हुए हैं. अब तक तीन-तीन बार राज्य के दौरे पर आ चुके हैं.
दोनों ही प्रभारी के दौर में पार्टी के भीतर एक जुटता की कमी दिखी. राज्य के बड़े नेताओं के रिश्ते में गजल का वह शेर चरितार्थ दिखा “दिल मिले ना मिले हाथ मिलाते रहिए.
इसलिए सभी नए पुराने चेहरों को जोड़ने की कवायत तेज कर दी गई है। लोकसभा चुनाव में सभी आदिवासी सीटों पर हार और बाबूलाल जी की अपील का असर आदिवासियों पर ना के बराबर हुआ है. यह राष्ट्रीय नेतृत्व के माथे पर शिकन तो ला ही दिया है।
प्रदेश संगठन महामंत्री भी निरपेक्ष नहीं दिख रहे हैं। कभी उनपर छः लाख की घड़ी पहनने की चर्चा जोरों पर रहती है तो कभी अपने दायरे से बाहर जाकर लाइमलाइट लूटने का आरोप लगता है। लोस चुनाव में भी अर्जुन मुंडा और कर्मवीर सिंह के बीच तल्खी की खबरें आती रहीं थी।
कैबिनेट मिनिस्टर रहते हुए स्वयं अर्जुन मुंडा जी की हार ने साबित कर दिया कि प्रदेश कार्यालय में आपसी प्रतिद्वंद्विता चरम पर है, खबर आई कि चुनाव परिणाम घोषित होते ही अर्जुन मुंडा जी रिपोर्ट बनाकर दिल्ली रवाना हो गए थे। इसका कारण भी है पिछले चुनाव में अर्जुन मुंडा जी भीतर घात के शिकार हुए थे इस कारण केवल साढ़े चौदह सौ वोटो से उनकी जीत हुई थी।
ऐसा लगता है अर्जुन मुंडा जी को प्रदेश की राजनीति से दूर रखने का प्रयास भीतर खाने मे चल रहा था।
दूसरे पूर्व मुख्यमंत्री रघुवर दास जी को उड़ीसा का राज्यपाल बनाया जा चुका है। रघुवर जी के चिर प्रतिद्वंद्वी सरयु राय उन पर घोटाले का आरोप लगाते हुए लगातार हमलावर रहे हैं और उन्हें राज्य की राजनीति में आने न देने की धमकी भी देते रहे। हेमंत सरकार ने भी उन पर भी वित्तीय अनियमितता का आरोप लगाते हुए जांच करने की चेतावनी दी थी। कहा जा रहा है कि रघुवर जी को सेफगार्ड देने के लिए ही केंद्र ने राज्यपाल बनाया।
बीते 5 वर्षों में हेमंत सरकार ने इतनी तैयारी जरूर कर ली होगी कि यदि रघुवर जी झारखंड के राजनीति में वापसी करते हैं तो कैसे उन्हें घेरा जाए इसलिए रघुवर जी का भी राज्य की राजनीति में वापसी मुश्किल ही है।
बाबूलाल मरांडी के प्रदेश अध्यक्ष बनते ही प्रदेश में लगा कि सब कुछ ठीक हो सकता है लेकिन प्रदेश कमेटी का विस्तार और लोकसभा चुनाव में यह खुलकर सामने आना कि प्रदेश कार्यालय दो धड़े में बंटा हुआ है हर जुबान पर चर्चा है भाजपा को जेवीएम ने टेकओवर कर लिया।
अब ऐसे में अगर यह खेमेबाजी शीघ्र नहीं रोकी गई तो विधानसभा चुनाव में स्पष्ट बहुमत लाना मुश्किल हो सकता है। इसलिए लाजमी है गुटनिरपेक्ष नेता की अगुवाई मिले और राज्य में आदिवासी चेहरों में देखा जाए तो कड़िया मुंडा ही सबसे सशक्त चेहरा है।
प्रदेश कार्यालय में तीनों पूर्व मुख्यमंत्री के खेमे में जबरदस्त रस्साकशी चलती दिखी ऐसे में तीनों पूर्व मुख्यमंत्री को नेतृत्व सौंपने की गुंजाइश कम ही दिखती है। राजनीतिक गलियारों की कानाफूसी की मानी जाए तो कड़िया मुंडा को राज्य का कमान सौंपा जा सकता है।
लोकसभा चुनाव में अपेक्षित परिणाम नहीं आने के बाद पार्टी पुराने कार्यकर्ता और नेताओं को मेनस्ट्रीम में लाने का प्रयास भी कर रही है। विगत चुनाव में पूर्व सांसद सुनील सिंह को गिरिडीह का प्रभार देकर झारखंड में उनकी प्रासंगिकता कायम रखने का पार्टी संकेत दे चुकी है। जबकि पूर्व प्रदेश अध्यक्ष यदुनाथ पांडे को भी विभिन्न कार्य में लगाया जा रहा है हालांकि भूमिहार खेमे से कालीचरण सिंह की जीत के बाद रवींद्र राय हाशिए पर ही चल रहे हैं।
और इसलिए पार्टी को किसी न्यूट्रल चेहरे पर दांव लगाना भी आवश्यक हो गया।
कड़िया मुंडा पार्टी में निर्विवाद होने के साथ-साथ संघ के भी प्रिय हैं। लोकसभा चुनाव में संघ और अनुषांगिक इकाइयों के सेवकों में उहापोह की स्थिति थी कहीं खुलेमन से पार्टी के लिए काम नहीं कर रहे थे। चुनाव के बाद मोहन भागवत जी के झारखंड दौरे में ये बातें खुलकर आई थी।
वैसे भी करिया मुंडा का प्रोफाइल झारखंड बीजेपी में किसी भी नेता के बहुत ऊपर है आठ बार सांसद रहे चार-चार मंत्रालयों में अटल जी ने उन्हें मौका दिया और यूपीए की अंतिम सरकार में लोकसभा उपाध्यक्ष रह चुके हैं। विपरीत परिस्थितियों में और कभी भी पार्टी के विरुद्ध बयान बाजी नहीं किया।
हालांकि झारखंड निर्माण के समय भी कड़िया मुंडा मुख्यमंत्री पद की दावेदारी में सबसे आगे थे लेकिन कभी बाबूलाल जी तो कभी अर्जुन मुंडा के साथ पर हुए फस गए.
2003 में राजनाथ सिंह के पैतरें में कड़िया मुंडा फिट नहीं बैठ रहे थे और बाबूलाल जी पर पद छोड़ने का दबाव था। राजनीतिक दावपेच में कड़िया मुंडा का नाम पिछड़ गया और तब के युवा और अनुभवहीन रहे अर्जुन मुंडा जी की लॉटरी लग गई.
राजनीति में माना जाता है की युवा नेताओं में इगो फैक्टर कम होता है इसलिए वह सीनियर नेताओं के पसंदीदा होते हैं जबकि सीनियर नेताओं में अहं का टकराव चलता रहता है और वह भी जब बराबरी पर हो तो अधिक ही। 2003 अक्टूबर में जब बाबूलाल जी मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिए तब कहा जाता है कि राजनाथ सिंह की फिरकी से अर्जुन मुंडा को प्रदेश का कमान मिला था.
इन 10 वर्षों में करिया मुंडा स्वयं को समेटकर शांत बैठे रहे लेकिन कहावत है की राजनीति का पहिया घूम फिर कर एक न एक बार वहीं आता है। अभी राज्य भर में विधानसभा स्तर पर अभिनंदन सा संकल्प सभाएं आयोजित की जा रही हैं। सभी कार्यक्रमों में एक बात समान रूप से उभर कर आई है की कार्यकर्ताओं में वैसा उत्साह नहीं दिख रहा है जिस प्रकार लोकसभा के चुनाव में था।
इसके दोनों कारण हो सकते हैं एक तो लोकसभा में अपेक्षित परिणाम करना आना और दूसरा प्रदेश स्तर पर गुटों में बात होना।
शायद इन्हीं फीडबैक के आधार पर नेतृत्व परिवर्तन की बात चल रही है जिसमें कड़िया मुंडा जी का नाम सार्वभौम रूप से स्वीकृत दिख रहा है। तमाम पुराने नेता और कार्यकर्ताओं के बीच भी हमेशा चर्चा रहती थी कि राज्य निर्माण के बाद पहला अवसर कड़िया मुंडा जी को मिलना चाहिए था। वे होते तो गठबंधन में दरार नहीं पड़ती और बीच में मुख्यमंत्री बदलने की विवशता नहीं होती।हालांकि उस समय भी चर्चा जोरों पर थी कि बगावत करनेवाले विधायकों का कहना है बाबूलाल जी की कमजोरियों का लाभ उठाकर रविंद्र राय सुपर सीएम बन गए हैं। जबतक बाबूलाल जी सीएम पद नहीं छोड़ते हैं वे गठबंधन में नहीं रहेंगे
कुछ वही स्थिति अभी भाजपा कार्यालय की है यहां तीन तीन बीजेपी चल रही है एक रघुबर जी की दूसरी अर्जुन मुंडा की और तीसरी खुद बीजेपी की। बाबूलाल जी पर तिहरा दबाव है तीनों गुटों के बीच अपना रास्ता निकालना जेवीएम से आए लोगों को अति उपकृत करने के आरोपों से बचना और लोकसभा चुनाव में आदिवासी बहुल क्षेत्रों मे बेअसर होना.
हालांकि उस समय भी चर्चा जोरों पर थी कि बगावत करनेवाले विधायकों का कहना है बाबूलाल जी की कमजोरियों का लाभ उठाकर रविंद्र राय सुपर सीएम बन गए हैं। जबतक बाबूलाल जी सीएम पद नहीं छोड़ते हैं वे गठबंधन में नहीं रहेंगे.
कुछ वही स्थिति अभी भाजपा कार्यालय की है यहां तीन तीन बीजेपी चल रही है एक रघुबर जी की दूसरी अर्जुन मुंडा की और तीसरी खुद बीजेपी की। बाबूलाल जी पर तिहरा दबाव है तीनों गुटों के बीच अपना रास्ता निकालना जेवीएम से आए लोगों को अति उपकृत करने के आरोपों से बचना और लोकसभा चुनाव में आदिवासी बहुल क्षेत्रों मे बेअसर होना. कुल मिलाकर कड़िया मुंडा की वापसी तय दिख रही है.