आदिवासी समाज के हर पहलू को बेहद करीब से छूने वाला देश के मानचित्र पर उभरा सबसे युवा राज्यों में शुमार हमारा झारखंड। जिसके विषय में गर्व से कहा जाता है जल जंगल और जमीन की धरा, जिसे कुदरत ने बड़े करीने से सजाया और संवारा है। पर शायद कुदरत झारखंड की साज सज्जा में इतनी मशगूल थी की उसे काला टीका लगा इस राज्य की नजर उतारने का ख्याल ही नहीं रहा। लिहाजा
आज इस नैसर्गिक राज्य की स्थिति उस मेमने की भांति है जिस पर चहु ओर से गिद्ध, भेड़िए और सियार अपनी नजर गड़ाए हुए हैं। जिसका परिणाम ये है की ईंट, गिट्टी,बालू और खनिज संपदा के बाद अब उनकी नजर झारखंड की आदिवासियत पर है। भोले भाले आदिवासियों की जमीन का सौदा सरे आम हो रहा है , कभी ब्याह शादी के छल से तो कभी बंदूक और बाहुबल तो कभी कोर्ट कचहरी के बल पर। हर गली मुहल्ले में आदिवासियत की इज्जत तार तार हो रही है।
बेशक हूटर बजाते साएं साएं करते सड़क पर चलने वाले राहगीरों को भेंड़ बकरी की तरह हांकने वाली प्रशासन की गाड़ियों को लूटती अस्मत की चीख पुकार सुनाई न पड़ रही हो। पर कहीं न कहीं उन आंखों की नींद फांकता हो चुकी है जिसने आदिवासी समाज के लिए अबुवा राज्य का सपना देखा था l
आज उन्हीं आंखों के सामने धन बल के दम पर जबरन दखल कब्जा हो रहा है, बिल्डर माफिया का आतंक सुई की नोख के बराबर जमीन भी नहीं छोड़ने पर आमादा है और राजनीतिक गलियारों और प्रशासनिक ओहदे पर बैठे रसूखदारों के इशारों पर दलालों और बिचौलियों की लॉबी सब कुछ लूटने के लिए जैसे कमर कस चुकी हो।
दिलचस्प ये है की ये सब कुछ हो रहा है एक आदिवासी मुख्यमंत्री के नाक के नीचे जो खुद को आदिवासी समाज का सबसे बड़ा रहनुमा कहते नहीं थकता। पर हकीकत तो ये है की आज जमीन के खेल की काली स्याही की कुछ बूंदें खुद उनके दामन पर भी पड़ी हुई हैं, ऐसे में खेल कुर्सी का है, चुनाव नजदीक है, पार्टी के मुखिया का बेटा है आगामी चुनाव में मुख्यमंत्री पद का पार्टी के तरफ से चेहरा भी होना लाजमी है।
लिहाजा राज्य के आदिवासियों के साथ हो रहे अन्याय की जिम्मेदारी भी उनको ही वहन करना होगा, कम से कम नैतिकता का तो यही तग़ाज़ा है
ऐसे में बड़ा सवाल हमारा पोर्टल आप से पूछना चाहता है। गर्व से आदिवासी दिवस, सरहुल, हुल दिवस आदि पारंपरिक उत्सव मनाते वक्त हममें से कितनो का सच में आदिवासी अस्मिता, संस्कृति और पहचान पर मंडराते खतरेको देख एक और उलगुलान के लिए खून खौलता है। या हम सभी आधुनिकता के मोह पाश में इतने अंधे हो गए हैं की हमें अपनी सांस्कृतिक धरोहर जो मृत्सैया पर कराह रही है, उसकी वेदना भी दिखाई नहीं दे रही।
अगर ऐसा है तो हम भी उतने ही जिम्मेवार हैं जितने की वो जिन पर हम उंगलियां उठा रहे हैं। सोचिएगा जरूर.