कुछ ही दिनों में झारखंड में विधानसभा चुनाव होने वाला है. सभी पार्टियां जनता को लुभाने के लिए अपना-अपना मैनिफेस्टो जारी करेगी. हर बार की तरह इस बार भी मैनिफेस्टो में 1932 के ज्वलंत मुद्दे उठाए जाएंगे. हर बार की तरह सभी पार्टियां आकर कहेगी कि 1932 के खतियान के आधार पर लोगों की स्थानियता तय की जाएगी. लेकिन नतीजा हर बार की तरह कुछ नहीं होगा. पिछले 24 साल में झारखंड में पांच चुनाव हो चुके हैं पार्टी जीत के बाद पांच साल का कार्यकाल पूरा तो कर लेती है लेकिन अपना वादा पूरा करना भूल जाती है. अगले कुछ महीनों में एक बार फिर झारखंड में विधानसभा चुनाव होने वाले है. इस चुनाव में यह देखना दिलचस्प होगा कि जीतने वाली पार्टी 1932 के खतियान आधारित स्थानीय नीति का वादा कर पूरा कर पाती है या नहीं. लेकिन क्या होगा अगर 1932 के खतियान के आधार पर झारखंड में स्थानीय नीति लागू हो जाता है, स्थानीय लोगों पर इसका क्या असर होगा. क्या यहां के जो स्थानीय निवासी है उन्हें उनका अधिकार मिल पाएगा या नहीं. इससे पहले जानते हैं 1932 खतियान है क्या?
क्या है 1932 खतियान आधारित नीति के फायदे
1932 का खतियान – बिहार का दक्षिणी पठारी इलाका है झारखंड, जहां 1932 में सर्वे हुआ था. इस सर्वे के आधार पर झारखंड में स्थानीय नीति परिभाषित करने की कोशिश हो रही है. सालों से लोगों की मांग है कि 1932 के आधार पर इसकी नीति परिभाषित की जाए. जिसका मतलब ये हुआ 1932 के खतियान जिनके पास होंगे, वो ही झारखंड के मूल निवासी होंगे. लोगों का कहना है कि झारखंड में बाहर से आकर बसे लोगों ने यहां के स्थानीय बंदिशों के अधिकारों का अतिक्रमण किया है, उनका शोषण किया है. लिहाज़ा, यहां की स्थानीय नीति 1932 के खतियान के आधार पर बनाई जानी चाहिए. इसे लागू करने के बाद स्थानीय व्यक्ति सामाजिक सुरक्षा, सामाजिक बीमा और रोजगार के संबंध में राज्य की सभी योजनाओं और नीतियों के हकदार होंगे. और भूमि रोजगार पर विशेषाधिकार और संरक्षण प्राप्त होगा. इसके साथ ही उन्हें कई और अधिकार प्राप्त होंगे.
1932 नीति लागू का झारखंड में विरोध
1932 के खतियान का झारखंड में बड़े पैंमाने पर विरोध भी होता रहा है इसका कारण है अगर 1932 का खतियान लागू हुआ तो 75 प्रतिशत लोग ऐसे भी है जो इससे जुड़ी शर्तों को पूरा नहीं कर पाएंगे. इसकी सबसे बड़ी वजह है उस समय जिनके पास जमीन थी, उसकी कई बार खरीद-बिक्री हो चुकी है। उदाहरण के तौर पर 1932 में अगर रांची जिले में 10 हजार रैयते थे तो आज उनकी संख्या एक लाख पार कर गई। इसके सटीक आंकड़े सरकार के पास भी मौजूद नहीं है कि 1932 में जो जमीन थी, उसके कितने टुकड़े हो चुके हैं। इसके अलावा दशकों से झारखंड में रहने वाले लोगों का खतियान में नाम भी नहीं है. वे कई तरह की सरकारी सुविधाओं से वंचित हो जाएंगे. मसलन स्थानीय के लिए आरक्षित नौकरी या शैक्षणिक पाठ्यक्रमों में नौकरी के लिए आवेदन नहीं दे पाएंगे.
दूसरी सबसे बड़ी वजह है 1952 में सिंदरी उर्वरक कारखाना स्थापित होने के बाद यहां बाहर से काम करने लाखों लोग आए और यहीं बस गए, 1971 में कोयले के राष्ट्रीयकरण के पहले खदानों के मालिक यूपी-बिहार से लोगों खदान में काम करने के लिए बुलाया गया था जो यहां आकर बसते चले गए. उनके पास 1932 का कोई खतियान नहीं है. जिसकी वजह से इसका बड़े पैमाने पर विरोध भी हो रहा है. अगर यह नीति लागू होती है तो जिनका खतियान में नाम नहीं है वे कई सुविधाओं से वंचित हो जाएंगे. स्थानीय के लिए आरक्षित नौकरी या शैक्षणि पाठ्यक्रमों में नौकरी के लिए आवेदन नहीं कर पाएंगे. स्थानीय के लिए शुरू हुई योजनाओं का भी लाभ नहीं उठा पाएंगे.
2002 में 1932 नीति हुई थी लागू करने की कोशिश
झारखंड बनने के बाद 2002 में उस समय के तत्कालीन सीएम बाबूलाल मरांडी ने 1932 के सर्वे सेटलमेंट को स्थानीयता का आधार माना था लेकिन उसके बाद हिंसा भड़क गई, जिसमें कई लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी. इसको लेकर विरोध इतना बढ़ गया कि बाबूलाल मरांडी को कुर्सी छोड़नी पड़ी. जिसके बाद मामला कोर्ट पहुंचा और झारखंड के हाईकोर्ट के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश जस्टिस वी के गुप्ता, जस्टिस गुरुशरण शर्मा, जस्टिस एस जे मुखोपाध्याय, जस्टिस एल उरांव और जस्टिस एम वाइ इकबाल की खंडपीठ ने इसपर सुनवाई करते हुए सरकार के इस निर्णय पर तत्काल रोक लगा दी थी.
इसके बाद साल 2013 में अपने पहले कार्यकाल में मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने स्थानीय नीति पर सुझाव देने के लिए तीन सदस्यीय समिति गठित कर दी. हालांकि तब यह नीति नहीं बन सकी है. अब देखना दिलचस्प होगा की आने वाले दिनों में जीती हुई सरकार इसपर काम कर पा रही है या नहीं.