कोल्हान टाइगर और पूर्व सीएम चंपाई सोरेन 30 अगस्त को भाजपा में शामिल हो गए. सोरेन का बीजेपी में आना पार्टी के लिए बड़ा मास्टरस्टोक साबित हो सकता है. चंपाई का कद झारखंड में बड़ा है. कोल्हान में चंपाई की पकड़ भी मजबूत है. शिबू सोरेन के बाद चंपाई जेएमएम के सबसे बड़े नेता के तौर पर जाने जाते थे. जिसे बीजेपी ने अपने पाले में कर लिया है. चंपाई के बीजेपी में शामिल होने पर कई सवाल खड़े होते है. क्या चंपाई के बीजेपी में शामिल होते ही भाजपा के अन्य नेताओं का कद बौना हो गया है क्या वो अब पार्टी के लिए नकारा हो गए हैं. क्या झारखंड की राजनीति में बीजेपी नेताओं की पकड़ ढ़ीली पड़ गई है, कि बीजेपी को जेएमएम के बड़े नेता को अपने पाले में करने की जरूरत पड़ गई.
जेएमएम के मजबूत स्तंभ थे चंपाई
दरअसल, चंपाई जेएमएम के एक मजबूत स्तंभ थे. कोल्हान के 14 सीटों पर उनकी मजबूत पकड़ थी. शिबू सोरेन के साथ वह झारखंड आंदोलन के मजबूत नेता के तौर पर उभरे जिससे उनकी छवि एक बेहतरीन नेता के तौर पर रही है. उनका बीजेपी में शामिल होना जेएमएम के लिए बड़ा पॉलिटिकल डैमेज साबित हो सकता है.चंपाई के जरिए बीजेपी विधानसभा चुनाव में जेएमएम के आदिवासी वोट बैंक में बड़ी सेंध लगा सकती है. जेएमएम के पास कोल्हान में चंपई से बड़ा कोई नेता नहीं है. जो जेएमएम की जगह ले सके. 2019 में हुए विधानसभा चुनाव में जेएमएम ने कोल्हान के 14 सीटों में 11 पर कब्जा किया था. दो सीट कांग्रेस के पास गई थी वहीं एक सीट पर निर्दलीय सरयू राय ने चुनाव जीता था.
आदिवासी समुदायों का अर्जुन मुंडा पर भरोसा नहीं
वहीं, कभी झारखंड की राजनीति के बादशाह रहे अर्जुन मुंडा पर आदिवासी समाज का भरोसा कम होते जा रहा है. मुंडा की कम होती लोकप्रियता की वजह से भाजपा उनपर दांव नहीं लगाना चाहती है. अर्जुन मुंडा पर आदिवासी समुदाय का कम होता भरोसा उनके बदलते संसदीय लोकसभा सीट भी है. 1995 से अपनी राजनीति कैरियर की शुरूआत करने वाले अर्जुन मुंडा 2003, 2005 और 2010 में झारखंड के मुख्यमंत्री बने. उनकी लोकप्रियता इससे भी आंका जा सकता है कि 2003 में बाबूलाल मरांडी को हटाकर भाजपा ने अर्जुन मुंडा को सीएम बनाया था. 2005 और 2010 का चुनाव भी भाजपा ने अर्जुन मुंडा के चेहरे पर लड़ा था. 1995, 2000 और 2005 में खरसावां विधानसभा सीट से मुंडा ने जीत दर्ज की. 2009 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने उन्हें जमशेदपुर लोकसभा से टिकट दिया. इस चुनाव में उन्होंने दो लाख मतों से जीत दर्ज की. उनकी लोकप्रियता को देखते हुए बीजेपी ने 2014 में मुंडा को उनके गठ खरसावां से लोकसभा का टिकट दिया. इस चुनाव में अपने ही गठ में उन्हें हार का सामना करना पड़ा.
फिर से 2019 के चुनाव में खूंटी लोकसभा सीट से बीजेपी ने उनपर दांव लगाया. इस चुनाव में वह बहुत कम अंतराल से जीते. राजनीति में धीरे-धीरे उनकी पकड़ ढीली पड़ती गई. आदिवासियों का उनपर भरोसा खत्म होने लगा, इसके बाद भी भाजपा ने उन्हें 2024 के लोकसभा चुनाव में खूंटी से टिकट दिया. लेकिन अर्जुन मुंडा करीब 1.5 लाख वोट से हार गए. आदिवासी में उनकी पकड़ ढीली होने से बीजेपी उनपर 2024 के विधानसभा चुनाव में दांव नहीं लगाना चाहती.
झारखंड के पहले सीएम पर भाजपा को भरोसा नहीं
बीजेपी के कद्दावर नेता में एक बाबूलाल मरांडी को 2024 में सीएम के तौर पर पेश कर सकती है. लेकिन वक्त के साथ उनका जनाधार कम हो गया है. आदिवासियों का उनपर भरोसा खत्म हो गया है जिसकी सबसे बड़ी वजह है अपनी पार्टी ‘झारखण्ड विकास मोर्चा’ का भाजपा में विलय कर देना. भाजपा में पार्टी का विलय के बाद पार्टी के अंदर बगावत शुरू हो गई. ‘झारखण्ड विकास मोर्चा’ के कई नेताओं को बीजेपी में वो मान-सम्मान नहीं मिला जो मिलना चाहिए था. जिसकी वजह से वो पार्टी छोड़ गए. झारखंड में बाबूलाल की ढ़ीली होती पकड़ की वजह से भी भाजपा उनके चेहरे पर दांव नहीं लगाना चाहती. हालांकि यह तो आने वाला वक्त बताएगा की भाजपा चंपाई दांव खेल पाती है या नहीं.
पार्टी विलय के बाद बाबूलाल मरांडी से टूटा आदिवासी समाज का भरोसा
बता दें कि बाबूलाल मरांडी झारखंड के पहले मुख्यमंत्री रहे हैं. झारखंड के संथाल परगना में उनकी पड़ थी. 1991 में उन्होंने अपने राजनीति कैरियर की शुरूआत की. 1991 और 1996 में दुमका लोकसभा सीट से भाजपा ने उन्हें टिकट दिया. हालांकि दोनों चुनाव में उन्हें हार का सामना करना पड़ा. जिसके बाद भाजपा ने उन्हें बाबूलाल मरांडी झारखंड के पहले मुख्यमंत्री रहे हैं. उन्होंने अपने कैरियर की शुरूआत 1991 से की. बाबूलाल मरांडी को बीजेपी ने 1991 और 1996 में दुमका लोकसभा सीट से टिकट दी. दोनों चुनाव में उन्हें हार का सामना करना पड़ा. 1998 के विधानसभा चुनाव के दौरान भाजपा ने उन्हें 1998 में झारखंड भाजपा का अध्यक्ष बनाया. पार्टी ने उनके नेतृत्व में झारखंड की 14 लोकसभा सीट जीती. इस चुनाव में उन्होंने शिबू शोरेन को संथाल से हराकर जीत दर्ज की थी. जिसके बाद बाबूलाल का कद झारखंड की राजनीति में काफी बढ़ गया. इस चुनाव के बाद एनडीए की सरकार में बिहार के 4 सांसदों को कैबिनेट में जगह दी गई। इनमें से एक बाबूलाल मराण्डी थे। बिहार से अलग होने के बाद 2000 बाबूलाल मराण्डी झारखंड के पहले सीएम बने. हालांकि पार्टी के अंदर अंदरूनी कलह की वजह से उन्हें 2003 में इस्तीफा देना पड़ा. 2004 के लोकसभा चुनाव में उन्होंने कोडरमा सीट से चुनाव जीता, जबकि अन्य उम्मीदवार हार गए। 2006 में मरांडी भाजपा समेत कोडरमा सीट से इस्तीफा दे दिया.’झारखण्ड विकास मोर्चा’ नाम से नई राजनीतिक दल बनाया। जिसके बाद 2009 के लोकसभा चुनाव में उन्होंने अपनी पार्टी की ओर से कोडरमा सीट से चुनाव लड़कर बड़ी जीत हासिल की। 2020 में उन्होंने अपनी पार्टी को बीजेपी से मर्ज कर लिया. बाबूलाल मरांडी की पहचान आदिवासी ही नहीं बल्कि गैर आदिवासी जनता में भी है. कोडरमा, रामगढ़ और राजधनवार जैसी गैर-आरक्षित सीटों पर उनकी जीत इसकी तस्दीक करती है.